Saturday, July 12, 2008
एक मोड़ पर छूटी यादें . .
जीवन के एक मोड़ पर शायद
मेरा बचपन छूट गया है ।
जाने अनजाने में न जाने
कोई एक सपना रूठ गया है॥
क्यूँ वक्त बना निर्दयी पितामाह?
क्यूँ जीवन चक्की उसने चलाई?
में भी भूली भटकी पागल सी
चल आई संग, पकड़ उसकी कलाई॥
छोड़ आई हूँ पीछे , वो सारे सपने
वो गुड्डे गुड़िया,जो थे मेरे अपने।
वो चंदा ,वो सूरज,वो तितली ,वो तारा
वो drawing copy जिसमे सिमटा था संसार ये सारा॥
वो cricket matches में कचरा पार्टी कहलाना
वो चिडिया,वो गाय उन सब को नहलाना।
वो शक्कर की बोरी ,वो अम्मा की लोरी
वो आम का अचार, वो झूठा बुखार॥
वो mummy के सोने पर टीवी चलाना
वो पापा के न होने पर खेलने भाग जाना
वो रूठना ,वो मानना,वो हसना,वो गाना
वो हर एक पल में एक जीवन बीताना।
अब याद आता है बचपन का वोह ज़माना॥
क्यूँ वक्त उड़ गया पंख लगाकर ?
क्यूँ मुझे ले गया संग उड़ाकर?
अब याद आती है
वो आम वोह अम्मियाँ ,वो फूल वो कलियाँ
वो park के नजारे,वो पतंग की कतारे।
वो मोगली ,चंद्रकांता
गिल्ली डंडा,अक्कड़-बक्कड़
वो पोशम्पा के चक्कर,
वो सतोलिया के पथहर।
वो चुटकी के दाने चुप-चुप के चबाना
वो bournvita का दूध गमलों में फैलाना.
वो छुपन-छुपाई,वो पकड़म-पकडाई
वो छोटी छोटी बातों पर प्यारी सी लड़ाई।
वो हँसी ठिठोली, दिवाली की रंगोली
वो कान्हा की झांकी,वो टॉफी ,वो राखी॥
वो प्रसाद के लिए रोज़ मन्दिर को जाना
एक गुब्बारे के लिए पूरे दिन माँ को मानना।
वो दुशेहरे के मेले, वो चुस्की के ठेले
वो घोड़े का खेल, जो पापा संग थे खेले...
दिल में है यही तमन्ना अब तो....
मेरा कल हो मेरे कल के जैसा।
फिर वही हँसी,फिर वही मस्ती
फिर वही बारिश ,वही कागज़ की कश्ती॥
चलो चले उस मोड़ पर वापस
फिर बचपन में ले वक्त धकेल
फिर चखे वही चूरन -चटनी
फिर खेले गुडियों का खेल॥
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12 comments:
हाँ बचपन ऐसा ही होता है मीठी यादें लिये हुये.....
Of all, this sublime creation of yours makes one revisit his own childhood and wonder if those sweet memories are lost forever in dark by overwhelming adolescent experiences!
@shantanu sir
sir i feel u are overrating it a bit.....
maanti hoon ki its nice....but its not meant for tears.......its written with a purpose of resurrecting my childhood...
it helps me to bring my childhood back into life
try it that way...i promise u'll end up with a smile:):)
touching..sweet..and very natural.. amazing work :)
Beautiful lines!
" वो mummy के सोने पर टीवी चलाना" Makes me so nostalgic except it was daddy instead of mummy in my case.
Thank God cable TV wasn't popular during those days. Keep writing.you got a talent
WoW! There are just so many lines in that piece that I can copy and paste!
Kaash 'Mera kal ho mere kal ke jaisa!'
Once I thought about writing a poem about life.. but I now I feel you should do that.. Vinci ne kaha tha simplicity is ultimate sophistication and this poem justifies that..
@ Vikalp sir
Thanx A lot sir.....what an achievement it is to have people like you visiting the blog ....i m greatly honoured :) :)
@freakygenius
well......thankyou Mr.Genius and a warm welcome to the blogosphere.......have a great innings.All the best :)
yaar i dont think someone can describe BACHPAN better than this... ur words were constantly pushing me towards mine..its a beautiful creation...lovable
ati sunder.......!!..agar ye sharey kaam tune bachpan mein kiye hain to i wonder it must hv been a tough time 4 ur parents taming u..!!
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